Thursday, October 16, 2014

इसाई क्रॉस की नॉर्स उत्पत्ति ( Norse origin of Christian Cross )

क्रॉस या सूली इसाई धर्म का प्रसिद्ध चिन्ह है और इसाई धर्म की यही पहचान है। कहते है की रोमन सम्राट कांस्तान्तैन ने एक युद्ध के दौरान आसमान में सूली या क्रॉस नज़र आया जिसके बाद उसने इसाई धर्म अपना लिया था।
पर यह बात बड़ी विचित्र लगती है की इसाईयो ने उस सूली को अपना चिन्ह क्यों बनाया जिसपर इसाह मसीह की मृत्यु हुई थी?
इसका कारण है की इसाई धर्म  ने अपने समकालीन अन्य धर्मो के चिन्ह अपना लिए जिस कारण वे जन साधारण तक पहोच पाए।

आज यदि हम देखे तो कई लोग आपको गले में क्रॉस का लॉकेट पहने देखेंगे, कुछ तो केवल फैशन के लिए पहनते है पर अधिकतर उन लोगो में इसाई होते है।
गले में क्रॉस देख आप पहचान सकते है कि वह व्यक्ति इसाई है। पर क्रॉस का लॉकेट पहनना और स्वयं क्रॉस की उत्पत्ति इसाई धर्म के समकालीन धर्म नॉर्स धर्म से है।

नॉर्स धर्म
नॉर्स लोग या वाइकिंग लोग उत्तर यूरोपीय लोग थे जो 7वी सदी इसवी के बाद सामने आये। यह लोग आर्य भाषा, नॉर्स भाषा बोलते थे। इनके धर्म को नॉर्स धर्म कहा जाता है जिसका प्रमुख देवता था ओडिन, जो की देवताओ का राजा था। ओडिन का पुत्र थुनार जिसे आज थोर के नाम से जानते है वो वर्षा और बिजली का देवता था। अपने बिजली के हथोड़े से वह अपने शत्रुओ पर बिजली गिराता और उन्हें नष्ट करता।
नॉर्स योद्धा समुदाय के लोग थे और उनके देवता भी योद्धा ही थे। युद्ध में जाने से पहले या अन्य राज्य पर हमला करने से पहले वे अपने देवताओ से प्राथना करते और  थोर के हथोड़े का लॉकेट पहनते थे। उनके अनुसार उस लॉकेट में थोर का आशीर्वाद था और थोर उनकी रक्षा करेंगे। इस कदर का लॉकेट सामान्य नॉर्स व्यक्ति भी पहनता था।

नॉर्स लोगो ने अपने सैन्य अभियानों के दौरान डेनमार्क,स्वीडन,फ्रांस,ब्रिटेन,रूस और कुछ अन्य उत्तर यूरोपीय देशो में अपनी बस्ती बसाई। इस कारण उनका धर्म और उनकी संस्कृति लगभग सम्पूर्ण यूरोप में फैली।
थोर के हथोड़े का लॉकेट आज हमें यूरोप में कई जगह मिलते है।
लगभग 13वी सदी इसवी तक वाइकिंग या नॉर्स लोगो के राज्य पूरी तरह से इसाई बन चुके थे। इसाई बनने के बाद नॉर्स लोगो की कई प्रथाओ और रिवाजो को इसाई धर्म ने अपने अन्दर समा लिया जिसमे थोर के हथोड़े का लॉकेट भी शामिल था।
थोर के हथोड़े का लॉकेट लगभग इसाई क्रॉस की तरह ही दिखता है, चुकी थोर के हथोड़े का लॉकेट नॉर्स लोगो के लिए सामान्य बात थी इसीलिए इसाई बने वाइकिंग क्रॉस के लॉकेट को धारण करने लगे।
इसाई बनने के बाद वाइकिंग राजवंशी और योद्धा नाइट कहलाये। पोप के आदेशानुसार ये नाइट्स जेरूसलम को इसाईयो के अधीन करने गए और क्रूसेडर्स कहलये।
अपने पूर्वजो की तरह, जो कि अपने साथ थोर का हथोड़ा लेकर जाते थे ये नाइट्स अपने साथ क्रूसेड (क्रॉस) लेकर गए थे।

इसाई धर्म एक ऐसा धर्म है जो कई अन्य धर्मो की शिक्षाओ, निति, रिवाज आदि से मिलकर बना। इसका सबसे अच्छा उधारण वह क्रॉस है। /div>
इसाई बनने के बाद वाइकिंग राजवंशी और योद्धा नाइट कहलाये। पोप के आदेशानुसार ये नाइट्स जेरूसलम को इसाईयो के अधीन करने गए और क्रूसेडर्स कहलये।
अपने पूर्वजो की तरह, जो कि अपने साथ थोर का हथोड़ा लेकर जाते थे ये नाइट्स अपने साथ क्रूसेड (क्रॉस) लेकर गए थे।

सोत्र: http://www.ancient-origins.net/news-history-archaeology/discovery-hammer-thor-artifact-solves-mystery-viking-amulets-001819

जय माँ भारती

Saturday, June 21, 2014

प्रोटो इंडो यूरोपियन भाषा का मिथक (Myth of the Proto Indo European Language)

पश्चिमी भाषावैज्ञानिक और इतिहासकारों ने यह पाया की यूनानी ,लैटिन और संस्कृत में कई समानता है और इन तीनो भाषाओ की एक ही जननी है जिसे इन्होने प्रोटो इंडो यूरोपियन यानि हिंदी में आदिम या प्राचीन हिंद यूरोपीय भाषा कहते है ।
पश्चिमी इतिहासकारों का मानना है की पश्चिम यूरोप और मध्य एशिया की सीमा के आसपास रहने वाले लोग प्रोटो इंडो यूरोपियन बोलते थे ,फिर वे लोग अलग अलग बट गए और कई अन्य भाषाओ में बदल गए और प्रोटो इंडो यूरोपियन विलुप्त हो गई । अब कई वर्ष तक संस्कृत पर काम करने के बाद भाषावैज्ञानिको ने प्रोटो इंडो यूरोपियन को दुबारा बना लिया है ,क्युकी संस्कृत अन्य आर्य भाषाओ में प्रोटो इंडो के सबसे करीबी है इसीलिए उसे चुना गया ।
पर इस सिधांत में कई खामिया है । मैं कोई भाषा वैज्ञानिक नहीं हु और इस बारे में ज्यादा नहीं जनता ,पर जितना जनता हु उसी से इन पश्चिमी इतिहासकारों की पोल खोलूँगा ।
सच यह है की संस्कृत ही सभी भाषाओ की जननी है और हिमालय आर्यों की जन्मभूमि ।प्रोटो इंडो यूरोपियन जैसी कोई भाषा ही नहीं है, अब जब प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा लुप्त हो चुकी है तो आपको कैसे पता की संस्कृत उसके सबसे करीबी है ?? और यदि प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा थी और संस्कृत उसके करीबी है तो प्रोटो इंडो यूरोपियन भाषा का गढ़ भारत होना चाहिए ,क्युकी पश्चिम यूरोप और मध्य एशिया की भाषाए प्रोटो इंडो से दूर है तो साफ़ है की आर्य भारत से निकले और कास्पियन सागर जो मध्य एशिया और पश्चिमी यूरोप के पास है वहा बसे ,अब उन्हें वहा पहोचने के लिए कई वर्ष लगे इसीलिए उनकी भाषाओ में कई विकृतिया आई गई और वह प्रोटो इंडो यूर्प्पियन भाषा से अलग हो गई ।

पश्चिमी इतिहासकारों को यह बिलकुल पसंद नहीं की उनके पूर्वज भारत के हो । ईसायत और इस्लाम मे उत्तर अफ्रीका से लेकर इराक तक के भाग को इश्वर का बाग़ यानी ईडन गार्डन कहा गया है जहा आदम रहा था ,और पश्चिमी इतिहासकार या तो इसाई है या मुस्लमान इसीलिए उन्होंने अफ्रीका को मानव के जन्म का स्थान बताया है ।

पश्चिमी इतिहासकार और भाषावैज्ञानिको को संस्कृत का बहोत कम ज्ञान है और कई लोगो ने तो संस्कृत में पीएचडी तक की है ,पर फिर भी संस्कृत के मामले में वे लोग पिछड़े हुए है ।
अब मैं आपको बताऊंगा की अपने संस्कृत के कम ज्ञान के सहारे भाषावैज्ञानिको ने जिस प्रोटो इंडो यूरोपियन भाषा का निर्माण किया है वह कई खामियों से भरी पड़ी है ।
भाषावैज्ञानिको ने ऋग्वेद के द्यौस ,यूनानी ज़ीउस और रोम के जुपिटर में समानता देखि और इस निर्णय पर आये की ये तीनो एक ही शब्द से उत्पन्न हुए है ,जो की प्रोटो इंडो यूरोपियन शब्द द्येउस (Dyeus) से है और संस्कृत का द्यौस उसका सबसे करीबी है ।

प्रोटो इंडो यूरोपियन भाषा सुनने के लिए यहाँ क्लिक करे : प्रोटो इंडो यूरोपियन 

भाषावैज्ञानिको ने यह पाया की ज़ीउस ,जुपिटर और द्यौस तीनो ही देवताओ के राजा है (ग्रिफ्फित के अनुवाद अनुसार ), पर ऋग्वैदिक मंत्रो में द्यौस पिता को कही भी देवताओ का राजा नहीं कहा गया ,यह केवल भाषावैज्ञानिको का अनुमान था | यदि आप ग्रिफ्फित का ऋग्वेद का अनुवाद पड़े तो ऋग्वेद का मंडल 4 सूक्त 17 का मंत्र 4 के अनुसार द्यौस पिता इंद्र के पिता है और यदि हम आर्य समाज जामनगर  का अनुवाद पड़े इसी मंत्र का तो उसके अनुसार द्यौस का अर्थ शूरवीर है | जबकि हम दुबारा ग्रिफ्फित का अनुवाद देखे और उसमे पुरुष सूक्त देखे तो उसके अनुसार इंद्र पुरुष के नेत्र से उत्पन्न हुए है तो द्यौस पुरुष के माथे से , अर्थात इंद्र द्यौस के पुत्र नहीं ,और यदि आर्य समाज जामनगर  अनुवाद ले तो यहाँ द्यौस का अर्थ आकाश लोक है |
आर्य समाज जामनगर ,ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त ९० मंत्र 14 

जब आर्य अभारत से बहार गए तो धीरे धीरे उन्होंने अपना नया धर्म बनाया ,प्राचीन ,फिर प्राचीन इराक यानि सुमेरिया में पुत्र अपने पिता की हत्या कर सिंहासन पर बैठने लगे, राजा द्वारा किये गए इस पाप को छुपाने के लिए कवियों ने एक कहानी गड़ी की जब देवता पापी हो जाते तो उनके पुत्र उनकी हत्या कर गद्दी पर बैठते और न्याय को सदा कायम रखते |
अब यही कहानी कई देशो में गई ,ज़ीउस ने भी अपने पिता क्रोनुस की और जुपिटर ने अपने पिता सैटर्न की हत्या की थी | पश्चिमी भाषावैज्ञानिको ने यही सोचा की द्यौस इंद्र का पिता है और इंद्र भी अपने पिता की हत्या कर देवताओ का राजा बना |
असल में यह बृहस्पति है जो यूनान में ज़ीउस बना और रोम में जुपिटर ,बृहस्पति और जुपिटर दोनों ही बृहस्पति ग्रह से जुड़े हुए है और ज़ीउस ,जुपिटर और बृहस्पति यह तीनो शब्द एक दुसरे से मिलते जुलते है ।

तो भाषावैज्ञानिको ने जिस द्यौस के आधार  पर प्रोटो इंडो यूरोपियन शब्द द्येउस (Dyeus) वह गलत है | इससे हम यह अनुमान लगा सकते है इनकी बनाई 70% भाषा गलत है |

जय माँ भारती

Monday, May 26, 2014

प्राचीन यूनान और मैच फिक्सिंग ( Ancient Greece and Match Fixing )

शोधकर्ताओ को मिर्स में एक प्राचीन पत्र मिला है जिसे हाल ही में पड़ा गया है और इसने कुछ चौकाने वाले खुलासे किये है | यह पत्र यूनानी भाषा में है और 267 ईसापूर्व का है , यह पत्र असल में एक समझोता है निकान्तिनोउस नाम के पहलवान के पिता और निकान्तिनोउस के गुरु के बिच |
उस समय मिस्र के अन्तिनोपोलिस में कुश्ती का खेल आयोजित हुआ था जिसमे निकान्तिनोउस और उसी के गुरु का दूसरा शिष्य देमेत्रिउस का निर्णायक मुकाबला होना था |

मिस्र में मिले पत्र का चित्र 
निकान्तिनोउस के पिता ने इस समझोते में देमेतिउस को 3800 द्रच्मा ( यूनानी मुद्रा ) देने का वचन दिया था यदि वह निकान्तिनोउस को जीतने दे | यह प्राचीन काल में फिक्सिंग या यु कहे रिश्वत लेने देने का पहला एतेहासिक लेख माना जा रहा है |
उस समय प्राचीन यूनान में कुश्ती का नियम था की पहलवान को अपनी विरोधी को सीमा के बहर तीन बार पटकना होगा जितने हेतु | इस समझोते के अनुसार देमेत्रिउस को भी जमीं पर तिन बार गिरना होगा यदि उसे 3800 द्रच्मा चाहिए तो , उस समय 3800 द्रच्मा से एक गधा ख़रीदा जा सकता था | समझोते के अनुसार यदि न्यायधीश को पता चला की इस खेल फिक्स था तब भी देमेत्रिउस को पैसे मिलेंगे |
समझोते के आखिर में लिखा था की यदि देमेत्रिउस समझोते के अनुसार निकान्तिनोउस से नहीं हरा तो दंड स्वरुप उसे निकान्तिनोउस के पिता को तिन चांदी की मुद्रा देनी होगी |

सोत्र : अन्किएन्त ओरिजिंस

जय मा भारती

Thursday, May 15, 2014

मुहम्मद कल्कि नहीं

मुल्लों ने
पुराणो का सहारा लेके मुहम्मद को कल्कि अवतार
सिद्ध करने की कोशिस की है |
उन्होंने अपने लेख "हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और
भारतीय
धर्मग्रन्थ -१"में कहा है की भविष्य पुराण के अनुसार
कल्कि अवतार जो की अंतिम अवतार माना जाता है
वो मुहम्मद के रूप में हो चुका है | उन्होंने जैन और
बौध
धर्म
का भी उदहारण दिया है और कहा है की इन धर्मो के
अनुसार भी मुहम्मद आखरी अवतार है |
अब इससे हास्यपद बात और क्या हो सकती है
की बौध
धर्म जो अवतार वाद के खिलाफ है यहाँ तक
की वो ब्रह्मा , विष्णु , महेश तक को ईश्वर
का अवतार
नहीं मानता, तो भला मुहम्मद को कैसे अवतार घोषित
कर सकता है?,
हाँ बुद्धिस्ट कालचक्र तंत्र को सही मानते
हो तो इसमें
सम्भल जिलेके २५ राजा के जन्म का जिक्र है वो२३३७
में
होगा जिसका नाम कुलिक होगा और जिसके हाथ में
तलवार नहीं बल्कि कालचक्र होगा पर मुहम्मद के हाथ
में
तलवार थी |
भगवत महा पुराण के अनुसार कल्कि का जन्म भारत
के
सम्भल जिले में होगा पर मुहम्मद का जन्म तो अरब
के
रेगिस्तान में हुआ था , अब अरब के रेगिस्तान और
सम्भल
में क्या समानता हो सकती है...?
कल्कि का जन्म कब होगा उसके बारे में कहा गया है
"द्वादश्यां शुक्ल-पक्षस्य माधवे मासि माधवम्"-
कल्कि पुराण ,१:२:१५ , यानि कल्कि का जन्म १२
मार्च को होना निश्चित किया गया है पर मुहम्मद
साहब का जन्म २० अप्रैल ५७१ को हुआ | यूँ तो कई
सारी भिन्तायें गिनवा सकती हूँ वो भी सबूत के साथ
जो ये साबित कर देंगी की जाकिर नायक रट्टू तोते
के आलावा कुछ नहीं हैं |
पर चलिए मैं जाकिर नायक की बात को थोड़ी देर के
लिए सही मान लेती हूँ, मान लेती हूँ की भविष्य पुराण
में मुहम्मद का जिक्र है पर वो जिक्र कैसा है ये आप
खुद
ही देख लीजिये | भविष्य पुराण -प्रति सर्ग ३:३
-५-७-२४-२७ में त्रिपुरासुर नाम के राक्षस का जिक्र
आया है जिसे शंकर जी ने संहार कर
दिया था वो मरुस्थल में महामाद नाम के राक्षस के
रूप
में जन्म लेगा और पैसचिक धर्म स्थापित करेगा | अब
अगर
जाकिर नायक भविष्य पुराण की बात मानते हैं
तो इन्हें ये भी मानना चाहिए की मुहम्मद साहब
वही महामाद है जिसका जिक्र भविष्य पुराण में
त्रिपुरासुर नाम के राक्षस के रूप में है उनके
व्यक्तित्व
और
कृतित्व से महामाद/ त्रिपुरासुर का प्रोफाइल बिल्कुल
मिलता जुलता है. यदि वे ज़िंदा होते तो इतने बड़े नर-
संहार और नाबालिग बच्चियों के शील हरण के आरोप
में
अंतरराष्ट्रीय अदालत से कठोरतम सज़ा पा चुके होते.
अब में मुहम्मद के जीवन का चित्रण करति हु मेने
उसमे
शाक्ष्य भी दिए है ताकि कोई मुल्ला ये ना कह सके
कि ये सब झूट है ।

Wednesday, April 30, 2014

हिंदू संत का इस्लामीकरण ( Islamization of Hindu Saint )

"हो लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन 
लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन 
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर 
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर 
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर  

हो लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन 
लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन 
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर 
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर 
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर 
हो लाल मेरी..हो लाल मेरी..

हो चार चराग तेरे बलां हमेशा 
हो चार चराग तेरे बलां हमेशा 
चार चराग तेरे बलां हमेशा 
पंजवा में बलां आई आन बला झूले लालन 
हो पंजवान में बालन 

हो पंजवान में बालन आई आन बलां झूले लालन 
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर 

दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर 
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर 
हो लाल मेरी..हाय लाल मेरी..

हो झनन झनन तेरी नोबत बाजे 
हो झनन झनन तेरी नोबत बाजे 
झनन झनन तेरी नोबत बाजे 
नाल बाजे घड्याल बलां झूले लालन 
हो नाल बाजे..

नाल बजे घड़ियाल बला झूले लालन 
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर 
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर 
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर
कलंदर..
(हो लाल मेरी, हाय लाल मेरी..)"

हिंदी में अर्थ :
" ओ सिंध के राजा ,झुलेलाल , शेवन के पिता
 लाल पगड़ी वाले ,तुम्हारी महिमा सदा कायम रहे
कृपया मुझपर सदा कृपा बनाये रखना 


तुम्हारा मंदिर सदा प्रकाशमय रहता है उन चार चिरागों के कारण
इसीलिए मैं पंचा चिराग जलाने आया हु आपकी पूजा के लिए

आपका नाम हिंद और सिंध में गूंजे
आपके संमान में घंटिया जोर जोर से बजे

ओ मेरे इश्वर , आपकी महिमा यु ही बदती रहे हर बार ,हर जगह
मैं आपसे प्राथना करता हु की आप मेरी नाव नदी के पार लगा दे  "


आज कल या कवाली हिंदी फिल्मो में काफी प्रसिद्ध हो रही है और कई फिल्मो में यह कवाली ली जा चुकी है | यह कवाली है पाकिस्तान के सिंध प्रांत के सूफी शाहबाज़ कलंदर की , कहते है की वे बड़े नेक दिल थे और हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करते थे |पर सच कुछ और है , यह कवाली असल में सिंध के हिंदू संत श्री झुलेलाल का भजन था जिसे कवाली का रूप दे दिया गया है |
संत झुलेलाल 


संत झुलेलालसंत झुलेलाल का जन्म सिंध में 1007 इसवी में हुआ था |वे नसरपुर के रतनचंद लोहालो और माता देवकी के घर जन्मे थे , मान्यता यह है की वे वरुण के अवतार थे | उस समय सिंध पर मिर्कशाह नाम का मुस्लिम राजा राज कर रहा था जिसने यह हुक्म दिया था हिन्दुओ को की मरो या इस्लाम काबुल कर लो | तब सिंध के हिंदुओ ने 40 दिनों तक उपवास रखा और इश्वर से प्राथना की ,इसीलिए वरुण देव झुलेलाल के रूप में अवतरित हुए | संत झुलेलाल ने गुरु गोरखनाथ से 'अलख निरंजन ' गुरु मन्त्र प्राप्त किया | जब मिर्कशाह ने संत झुलेलाल के बारे में सुना तो उसने उन्हें अपने पास बुलवाया , उस समय संत झुलेलाल 13 वर्ष के ही थे |मिर्कशाह के सामने आने पर मिर्कशाह ने उन्हें बंदी बनाने का आदेश दिया पर तभी मिर्कशाह का महल आग की लपटों से घिर गया , तब मिर्कशाह को अपनी गलती कहा एहसास हुआ और उसने संत झुलेलाल से क्षमा मांगी ,इसके बाद पास ही के गाँव थिजाहर में 13 वर्ष की आयु में संत झुलेलाल ने समाधी ले ली |

काफ़िर किला ,प्राचीन शिव मंदिर 

सिंध प्राचीन काल से ही हिन्दुओ की भूमि थी ,इसका एक उधारण है काफ़िर किला जो पहले एक शिव मंदिर था ,700 इसवी के बाद अरबी मुसलमानों भारत पर हमला किया और अफगान और सिंध में इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया |
यह काम तलवार की नोक पर होता और इस काम के लिए सूफियो का सहारा भी लिया जाता था |
संत झुलेलाल सिंध में काफी प्रसिद्ध थे और वहा इस्लाम फ़ैलाने के लिए मुसलमानों ने शहबाज़ कलंदर को झुलेलाल जैसा बनाने की कोशिस की |
अब यदि आप उस कवाली का अर्थ पड़े तो आपको घंटियों का उल्लेख मिलेगा और दरगाह ,मस्जिद या मजार में तो घंटिया होती ही नहीं ,यह तो मंदिरों में होती है ,साथ ही चिराग या दियो से किसी सूफी की पूजा नही की जाती |
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की इस कवाली में झुलेलाल शब्द भी है सो प्रमाण है की यह कवाली असल में झुलेलाल का भजन था और मुसलमानों ने संत झुलेलाल के इस्लामीकरण की कोशिस की |
आज कई हिंदू इस कवाली को गा रहे है जबकि कई इस कवाली का अर्थ तक नहीं पता (क्युकी कवाली हिंदी में नहीं है ) ,वे नहीं जानते की एक तरह से वे इस्लामीकरण को बढावा दे रहे है |

जय माँ भारती 














Friday, April 18, 2014

इन्द्रप्रस्थ की खोज ( Search for the Indraprasth )

पश्चिमी देशो में उनके ग्रंथो में वर्णित कई प्राचीन नगर या इमारतो की खोज की जा रही है ।बेबीलोन के झूलते बगीचे आज तक नहीं मिले पर अब भी उसकी खोज जारी है ,मिस्र में अलेक्सान्देरिया का लाइट हाउस अब तक नहीं मिला पर उसकी खोज जारी है ,यूनानियो की महागाथा इलिअत में वर्णित ट्रॉय की खोज अब तक जारी है ,यु तो ट्रॉय मिल चूका है पर वह इलिअत में वर्णित ट्रॉय की तरह विशाल और मजबूत दीवारों वाला नहीं है ।
और भारत में अब तक कई प्राचीन नगर या महल अब तक नहीं मिले और जो है जैसे की राम सेतु उसे मानव निर्मित न कहकर हिंदू धर्म और वैदिक ग्रंथो को 100% झूठ करार दे दिया है ।
क्या केवल विदेशी ही सच लिखते है ?? भारतीय नहीं ??
आप येसु के पानी पर चलने की बात स्वीकार लेते हो यह कहकर की येसु जमे हुए पानी पर चले थे पर श्री राम का राम सेतु बनाना आपके लिए मिथक है बस ।
पर अब जैसे जैसे हिंदू जाग रहा है वैसे वैसे सबको सच पता चल जायेगा ।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने पुराना किला या इन्द्रप्रस्थ में दुबारा खुदाई शुरू कर दी है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का लक्ष्य है पांडवो के इन्द्रप्रस्थ के साक्ष्य खोजना और महाभारत को एक सच्चा इतिहास सिद्ध करना ।
भारत या भारतीय उपमहाद्वीप में यु तो अधिकतर पुरातात्विक स्थलों पर आम आदमी को जाने की मनाई है पर पहली बार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने आम जनता को पुराने किले में घुमने और खोजकरताओ को खोज करते देखने की अनुमति दे दी है ।
अभी तक पुराने किले में मुग़ल ,सल्तनत ,राजपूत,गुप्त,शुंग और मौर्य काल के अवशेष मिले है ,पुरातत्वविदो अब भूरे बर्तन वाली संस्कृति के अवशेष खोज रहे है क्युकी भूरे बर्तन वाली संस्कृति एक लोह युग संस्कृति है और 1600 ईसापूर्व पुरानी है जो यमुना गंगा घाटी में फैली थी ।
भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विदेशी कालगणना का उपयोग करता है बजाये हिंदू कालगणना के और विदेशी कालगणना अनुसार मगध का राजा जरासंध 1500 ईसापूर्व में हुआ था और वह महाभारत युगीन है इसीलिए पुरातत्वविद इन्द्रप्रस्थ और पांडवो को भूरे बर्तन की संस्कृति से जोड़ रहे है जो गलत है ।
मैं अब यह ही आशा करता हु की इन्द्रप्रस्थ मिल जाये और महाभारत एक सत्य घटना सिद्ध हो जाए ।

जय माँ भारती

Friday, April 4, 2014

महरौली के लोह स्तंभ में वर्णित राजा चंद्र की पहचान (Identity of King Chandra of Iron Pillor of Mehrauli )

इतिहासकारों ने महरौली के लोह स्तंभ को सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में रखा है और लोह स्तंभ में वर्णित राजा चंद्र को चंद्रगुप्त द्वितीय से जोड़ दिया है ।
कुछ इतिहासकार मानते है की उस लोह स्तंभ में जो लेख है वो गुप्त लेखो की शैली का है और कुछ कहते है की चंद्रगुप्त द्वितीय के धनुर्धारी सिक्को में एक स्तंभ नज़र आता है जिसपर गरुड़ है ,पर वह स्तंभ कम और राजदंड अधिक नज़र आता है ।
लोह स्तंभ के अनुसार राजा चंद्र ने वंग देश को हराया था और सप्त सिंधु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था ।
जेम्स फेर्गुससनजैसे पश्चिमी इतिहासकार मानते है की यह लोह स्तंभ गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय का है ।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह स्तंभ सम्राट अशोक का है जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था ।

जे.ऍफ़.फ्लीट के अनुसार वह गुप्त वंश का चंद्रगुप्त प्रथम है ,पर फ्लीट मानते है की यह लेख समुद्रगुप्त के अलाहबाद स्तंभ और कुमारगुप्त प्रथम के बिल्साद लेख से मिलता जुलता है ।
फ्लीट यह भी कहते है की शायद यह स्तंभ हुन नरेश मिहिरकुल के छोटे भाई चंद्र का होगा और इस बात का उल्लेख युआन च्वांग करते हुए कहते है की यह स्तंभ मिहिरपुर में है ।
समुद्रगुप्त के आर्यवर्त विजय से यह साफ़ होता है की उत्तर बंगाल या वंग पहले से ही समुद्रगुप्त के साम्राज्य में था जो उसे उसके पिता चंद्रगुप्त प्रथम से मिला ,इसीलिए वंग देश को हराने की बात चंद्रगुप्त प्रथम पर सही बैठती है ।पर सप्त सिंधु पर समुद्रगुप्त ने विजय पाई थी और वह भी कुषाणों से जिसका वर्णन उसके अलाहबाद स्तंभ पर है साथ ही सप्त सिंधु चंद्रगुप्त प्रथम के साम्राज्य में नहीं था ।
हरप्रसाद शास्त्री अनुसार राजा चंद्र असल में वर्मन वंश के राजा चंद्रवर्मन है ,सिंहवर्मन का पुत्र जो पुष्करण पर राज करता था सुसनिया लेख अनुसार ।
पर सुसनिया लेख चंद्रवर्मन को कोई सम्राट या विजेता के रूप में नहीं दर्शाता ।
ऐसे में लोह स्तंभ के राजा चंद्र की पहचान करना कठिन है ।
ए.वी. वेंकटराम एयर और हेमचंद्र राय चौधरी अनुसार राजा चंद्र और कोई नहीं बल्कि पुराणों का सदचंद्र है जो भारशिव वंश का था और विदिशा का राजा था ,पर सदचंद्र के राज में भारशिव वंश विदिशा तक ही सिमट गया था और ना ही किसी अन्य ग्रंथ में सदचंद्र के विजयो के साबुत है ।
अधिकतर इतिहासकार वी.ए स्मिथ से सहमत है की राजा चंद्र असल में चंद्रगुप्त द्वितीय है पर एलन मानते है की स्मिथ का यह तर्क केवल लेखो के अधार पर है ।
लोह स्तंभ लेख अनुसार राजा चंद्र का साम्राज्य दक्षिण सागर तक है और यह बात समुद्रगुप्त पर सही बैठती है क्युकी उसने दक्षिण भारत में भी युद्ध किये थे जो चंद्रगुप्त प्रथम और चंद्रगुप्त द्वितीय ने नहीं किया ।
लेख में वंग देशो को या उनके संघ को हराने की बात कही है ,अलाहबाद स्तंभ लेख में वंग देशो का उल्लेख नहीं है यानी की वंग पहले से ही समुद्रगुप्त के साम्राज्य का भाग होगा ।
लेख में सप्त सिंधु के मुहाने पर वह्लिको को हराने का जीकर है ।रामायण में इस बात का उल्लेख है की ऋषि वशिष्ठ ने अपना संदेश राजा भरत को पहोचने के लिए एक व्यक्ति को भेजा था ।
वह संदेशवाहक वह्लिक देश से होते हुए सुदामन पर्वत जाता है और विष्णुपद (लोह स्तंभ में इसी जगह स्तंभ गाड़ने का वर्णन है ) देखता है और दो नदिया विपासा और सल्माली नदी देखता है ।
लेख में आगे लिखा है की राजा चंद्र धरती के साथ साथ स्वर्ग को भी जीत लिया ।
दी.आर.भंडारकर के अनुसार किसी भी मनुष्य के लिए स्वर्ग जितना नामुमकिन काम है ,इसीलिए यहाँ आकाश या किसी उचे पर्वत की बात की गई है जहा राजा चंद्र ने अपने अंतिम दिन गुजारे।
जे.सी घोष अनुसार यह विष्णुपद वही पर्वत है जिसका जीकर रामायण में है ।
इसके अलावा कुछ इतिहासकार मानते है की हुन राजा मिहिरकुल का राज उत्तर भारत में था और विष्णुपद भी ,वही से मिहिरकुल इस लोह स्तंभ को महरौली ले आया ।

यह थी इतिहासकारों की राय जो इसी पर है की चंद्रगुप्त द्वितीय ही राजा चंद्र है पर एक भी ठोस साबुत नहीं दे पाए ।
अब मैं अपनी राय आगे रख रहा हु ।मेरे पास कुछ साबुत है जो इस ओर इशारा करते है की इस लोह स्तंभ का चंद्रगुप्त द्वितीय या गुप्त वंश से कोई रिश्ता नहीं है ।
1. गुप्त राजाओ ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी और गुप्त लेखो में गुप्त राजाओ के नाम के साथ महाराजाधिराज मिलेगा ही मिलेगा ,लेकिन इस स्तंभ में राजा चंद्र के नाम के साथ महाराजाधिराज है ही नहीं ।

2. अधिकतर गुप्त लेखो में हमें गुप्त वंशावली मिलेगी पर इस लोह स्तंभ पर गुप्त वंशावली है ही नहीं ,हा कुछ गुप्त लेखो में हमें गुप्त वंशावली नहीं मिलती पर उनमे उन लेखो को खुदवाने वाले राजा का पूरा नाम और महाराजाधिराज उपाधि जरुर मिलती है ।

3. लोह स्तंभ के अनुसार राजा चंद्र ने सप्त सिन्धु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था पर कालिदास जो चंद्रगुप्त द्वितीय की सभा में थे वे यह लिखते है की चंद्रगुप्त द्वितीय ने हूणों को हराया था सिंधु घाटी में ,साथ ही कालिदास कही भी वह्लिको से युद्ध का जीकर नहीं करते ।

यह तो सिद्ध हो गया की यह लोह स्तंभ गुप्तो का नहीं है तो सवाल उठता है की यह स्तंभ आखिर है किसका ??

इसके दो उत्तर हो सकते है :-
पहला यह की यह किसी स्थानीय राजा ने खुदके या खुदके पूर्वज की बड़ाई करने हेतु बनवाया था ,पर बड़ाई या तारीफ करने के लिए कोई लोह के बजाये पत्थर को चुनेगा ,अर्थात यह सच में किसी प्रतापी राजा ने बनवाया होगा ।
तो दूसरा उत्तर होगा की यह स्तंभ चंद्रगुप्त मौर्य का है ,इसके पीछे सिधांत यह है :-
1. वह्लिक ईरानी लोग थे जो अफगान में रहने लगे और उनका इतिहास 2000 ईसापूर्व पुराना है ।भारतीय कालगणना अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य 1400 ईसापूर्व या 1000 ईसापूर्व में जन्मा था और उस समय तक वह्लिको का फैलाव सिंधु घाटी तक था ,चंद्रगुप्त मौर्य का युद्ध वह्लिको से जरुर हुआ होगा ।

2. लोह स्थंभ अनुसार वंग देशो के संघ के साथ राजा चंद्र का युद्ध हुआ था और संघ या गण संघ महाजनपद काल के थे जो चंद्रगुप्त मौर्य का ही काल था ।

3. लोह स्तंभ अनुसार राजा चंद्र ने दक्षिण समुद्र तक के राज्य जीते थे और चंद्रगुप्त मौर्य भी ।

4. लोह स्तंभ विष्णु को समर्पित है और चाणक्य के अर्थशास्त्र में विष्णु की पूजा का उल्लेख है अर्थात यह उसी काल का है ।

जैसा मैंने अपने पिछले लेख "हिंदू सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य " में बताया की चंद्रगुप्त मौर्य जैन नहीं बल्कि हिंदू थे और वे अपने अंतिम समय में विष्णुपद पर जाकर बस गए ।

जय माँ भारती

Thursday, March 27, 2014

स्वामी दयानंद का इतिहास चिंतन

स्वामी दयानंद का इतिहास चिंतन
क्रांतिगुरु स्वामी दयानंद के विशाल
चिंतन में एक महत्वपूर्ण कड़ी इतिहास
रुपी मिथ्या बातों का खंडन एवं सत्य
इतिहास का शंखनाद हैं।
स्वामी जी का भागीरथ प्रयास
था कि विदेशी इतिहासकारों द्वारा
अपने स्वार्थ हित एवं ईसाइयत के
पोषण के लिए विकृत इतिहास द्वारा
भारत वासियों को असभ्य, जंगली,
अंधविश्वासी आदि सिद्ध करने के लिए
किया जा रहा था उसे न केवल सप्रमाण
असत्य सिद्ध करे अपितु उसके स्थान पर
सत्य इतिहास कि स्थापना कर भारत
वासियों को संसार कि श्रेष्ठतम,
वैज्ञानिक, अध्यात्मिक रूप से सबसे
उन्नत एवं प्रगतिशील सिद्ध करे।
इसी कड़ी में स्वामी जी द्वारा अनेक
तथ्य अपनी लेखनी द्वारा प्रस्तुत किये
गये जिन पर आधुनिक रूप से शौध कर
उन्हें संसार के समक्ष सिद्ध कर
अनुसन्धान कर्ताओं कि सोच को बदलने
कि कि अत्यंत आवश्यकता हैं।
स्वामी जी द्वारा स्थापित कुछ
इतिहास अन्वेषण तथ्यों को यहाँ पर
प्रस्तुत कर रहे हैं।
१. आर्य लोग बाहर से आये हुए
आक्रमणकारी नहीं थे, जिन्होंने
यहाँ पर आकर यहाँ के मूल
निवासियों पर जय पाकर उन पर
राज्य किया था। वे यही के मूल
निवासी थे और इस देश का नाम
आर्यव्रत था।
२. वेदों में आर्य दस्यु युद्ध
का किसी भी प्रकार का कोई उल्लेख
नहीं हैं और यह नितांत कल्पना हैं
क्यूंकि वेद इतिहास पुस्तक नहीं हैं।
३. प्राचीन काल में
नारी जाति अशिक्षित एवं घर में चूल्हे
चौके तक सिमित न रहने वाली होकर
गार्गी, मैत्रयी जैसी महान
विदुषी एवं शास्त्रार्थ करने
वाली थी। वेदों में तो मंत्र
द्रष्टा ऋषिकाओं का भी उल्लेख
मिलता हैं।
४. वेदों में एक ईश्वर कि पूजा और
अर्चना का विधान हैं। एक ईश्वर के
अनेक गुणों के कारण अनेक नाम हो सकते
हैं और यह सभी नाम गुणवाचक हैं मगर
इसका अर्थ यह हैं कि ईश्वर एक हैं और
अनेक गुणों द्वारा जाना जाता हैं।
५. वेदों का उत्पत्ति काल २०००-३०००
वर्ष नहीं हैं अपितु सूर्य सिद्धांत
शिरोमणि ग्रंथों के आधार पर
अरबों वर्ष पुराना हैं।
६. रामायण, महाभारत आदि काल्पनिक
ग्रन्थ नहीं हैं अपितु राजा परीक्षित
के पश्चात आर्य राजाओं कि प्राप्त
वंशावली से सिद्ध होता हैं कि वह
सत्य इतिहास हैं।
७. श्री कृष्ण का जो चरित्र महाभारत
में वर्णित हैं वह आपत अर्थात श्रेष्ठ
पुरुषों वाला हैं। अन्य सब गाथायें
मनगढ़त एवं असत्य हैं।
८. पुराणों के रचियता व्यास
जी नहीं हैं अपितु पंडितों ने
अपनी अपनी बातें इसमें
मिला दी थी और व्यास जी का नाम
रख दिया था।
९. रामायण, महाभारत, मनु
स्मृति आदि में जो कुछ वेदानुकूल हैं वह
मान्य हैं प्रक्षिप्त अर्थात
मिलावटी हैं।
१०. वैदिक ऋषि मन्त्रों के
रचियता नहीं अपितु मंत्र द्रष्टा थे।
११. वेदों में यज्ञों में पशु बलि एवं
माँसाहार आदि का कोई विधान
नहीं हैं। वेदों कि इस प्रकार
कि व्याख्या मध्य कालीन
पंडितों का कार्य हैं जो वाममार्ग से
प्रभावित थे।
१२. मूर्ति पूजा कि उत्पत्ति जैन मत
द्वारा आरम्भ हुई थी। न वेदों में और न
ही इससे पूर्व काल में
मूर्ति पूजा का कोई प्रचलन था।
१३. वेदों में जादू टोना,काला जादू
आदि का कोई विधान नहीं हैं। यह सब
मनघड़त कल्पनाएँ हैं।
१४. वेदों में अश्लीलता आदि का कोई
वर्णन नहीं हैं। यह सब मनघड़त
कल्पनाएँ हैं।
१५. सृष्टि कि उत्पत्ति के काल में बहुत
सारे युवा पुरुष और
नारी का त्रिविष्टप पर
अमैथुनी प्रक्रिया से जन्म हुआ था और
चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं
अंगिरा को ह्रदय में ईश्वर
द्वारा वेदों का ज्ञान प्राप्त
करवाया गया था।
१६. वेदों का ज्ञान बहुत काल तक
श्रवण परम्परा द्वारा सुरक्षित रहा,
कालांतर में इक्ष्वाकु के काल में
वेदों को सर्वप्रथम लिखित रूप में
उपलब्ध करवाया गया था।
१७. आर्य वैदिक सभ्यता प्राचीन काल
में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित थी और
आर्यव्रत देश संसार का विश्व गुरु था।
१८. प्राचीन काल में विदेश गमन पर
कोई प्रतिबन्ध नहीं था और न
ही विदेश जाने से कोई भी धर्म से च्युत
हो जाता था।
१९. शुद्धि आदि का विधान गोभिल
आदि ग्रंथों में विद्यमान था इसलिए
जो भी कोई वैदिक धर्म त्याग कर
विधर्मी हो चुके हैं उन्हें वापिस
स्वधर्मी बनाया जा सकता हैं।
२०. गुजरात के सोमनाथ में
मुसलमानों कि विजय का कारण
मूर्ति पूजा एवं अवतारवाद से सम्बंधित
पाखंड था नाकि हिंदुओं में
वीरता कि कमी था।
ऐसे और उदहारण देकर एक पूरी पुस्तक
लिखी जा सकती हैं जिसका उद्देश्य
स्वामी दयानंद को अपने समय का सबसे
बड़े इतिहासकार, अनुसन्धान कर्ता के
रूप में सिद्ध करना होगा।

डॉ विवेक आर्य

जय माँ भारती