Wednesday, April 30, 2014

हिंदू संत का इस्लामीकरण ( Islamization of Hindu Saint )

"हो लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन 
लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन 
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर 
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर 
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर  

हो लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन 
लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन 
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर 
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर 
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर 
हो लाल मेरी..हो लाल मेरी..

हो चार चराग तेरे बलां हमेशा 
हो चार चराग तेरे बलां हमेशा 
चार चराग तेरे बलां हमेशा 
पंजवा में बलां आई आन बला झूले लालन 
हो पंजवान में बालन 

हो पंजवान में बालन आई आन बलां झूले लालन 
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर 

दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर 
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर 
हो लाल मेरी..हाय लाल मेरी..

हो झनन झनन तेरी नोबत बाजे 
हो झनन झनन तेरी नोबत बाजे 
झनन झनन तेरी नोबत बाजे 
नाल बाजे घड्याल बलां झूले लालन 
हो नाल बाजे..

नाल बजे घड़ियाल बला झूले लालन 
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर 
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर 
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर
कलंदर..
(हो लाल मेरी, हाय लाल मेरी..)"

हिंदी में अर्थ :
" ओ सिंध के राजा ,झुलेलाल , शेवन के पिता
 लाल पगड़ी वाले ,तुम्हारी महिमा सदा कायम रहे
कृपया मुझपर सदा कृपा बनाये रखना 


तुम्हारा मंदिर सदा प्रकाशमय रहता है उन चार चिरागों के कारण
इसीलिए मैं पंचा चिराग जलाने आया हु आपकी पूजा के लिए

आपका नाम हिंद और सिंध में गूंजे
आपके संमान में घंटिया जोर जोर से बजे

ओ मेरे इश्वर , आपकी महिमा यु ही बदती रहे हर बार ,हर जगह
मैं आपसे प्राथना करता हु की आप मेरी नाव नदी के पार लगा दे  "


आज कल या कवाली हिंदी फिल्मो में काफी प्रसिद्ध हो रही है और कई फिल्मो में यह कवाली ली जा चुकी है | यह कवाली है पाकिस्तान के सिंध प्रांत के सूफी शाहबाज़ कलंदर की , कहते है की वे बड़े नेक दिल थे और हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करते थे |पर सच कुछ और है , यह कवाली असल में सिंध के हिंदू संत श्री झुलेलाल का भजन था जिसे कवाली का रूप दे दिया गया है |
संत झुलेलाल 


संत झुलेलालसंत झुलेलाल का जन्म सिंध में 1007 इसवी में हुआ था |वे नसरपुर के रतनचंद लोहालो और माता देवकी के घर जन्मे थे , मान्यता यह है की वे वरुण के अवतार थे | उस समय सिंध पर मिर्कशाह नाम का मुस्लिम राजा राज कर रहा था जिसने यह हुक्म दिया था हिन्दुओ को की मरो या इस्लाम काबुल कर लो | तब सिंध के हिंदुओ ने 40 दिनों तक उपवास रखा और इश्वर से प्राथना की ,इसीलिए वरुण देव झुलेलाल के रूप में अवतरित हुए | संत झुलेलाल ने गुरु गोरखनाथ से 'अलख निरंजन ' गुरु मन्त्र प्राप्त किया | जब मिर्कशाह ने संत झुलेलाल के बारे में सुना तो उसने उन्हें अपने पास बुलवाया , उस समय संत झुलेलाल 13 वर्ष के ही थे |मिर्कशाह के सामने आने पर मिर्कशाह ने उन्हें बंदी बनाने का आदेश दिया पर तभी मिर्कशाह का महल आग की लपटों से घिर गया , तब मिर्कशाह को अपनी गलती कहा एहसास हुआ और उसने संत झुलेलाल से क्षमा मांगी ,इसके बाद पास ही के गाँव थिजाहर में 13 वर्ष की आयु में संत झुलेलाल ने समाधी ले ली |

काफ़िर किला ,प्राचीन शिव मंदिर 

सिंध प्राचीन काल से ही हिन्दुओ की भूमि थी ,इसका एक उधारण है काफ़िर किला जो पहले एक शिव मंदिर था ,700 इसवी के बाद अरबी मुसलमानों भारत पर हमला किया और अफगान और सिंध में इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया |
यह काम तलवार की नोक पर होता और इस काम के लिए सूफियो का सहारा भी लिया जाता था |
संत झुलेलाल सिंध में काफी प्रसिद्ध थे और वहा इस्लाम फ़ैलाने के लिए मुसलमानों ने शहबाज़ कलंदर को झुलेलाल जैसा बनाने की कोशिस की |
अब यदि आप उस कवाली का अर्थ पड़े तो आपको घंटियों का उल्लेख मिलेगा और दरगाह ,मस्जिद या मजार में तो घंटिया होती ही नहीं ,यह तो मंदिरों में होती है ,साथ ही चिराग या दियो से किसी सूफी की पूजा नही की जाती |
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की इस कवाली में झुलेलाल शब्द भी है सो प्रमाण है की यह कवाली असल में झुलेलाल का भजन था और मुसलमानों ने संत झुलेलाल के इस्लामीकरण की कोशिस की |
आज कई हिंदू इस कवाली को गा रहे है जबकि कई इस कवाली का अर्थ तक नहीं पता (क्युकी कवाली हिंदी में नहीं है ) ,वे नहीं जानते की एक तरह से वे इस्लामीकरण को बढावा दे रहे है |

जय माँ भारती 














Friday, April 18, 2014

इन्द्रप्रस्थ की खोज ( Search for the Indraprasth )

पश्चिमी देशो में उनके ग्रंथो में वर्णित कई प्राचीन नगर या इमारतो की खोज की जा रही है ।बेबीलोन के झूलते बगीचे आज तक नहीं मिले पर अब भी उसकी खोज जारी है ,मिस्र में अलेक्सान्देरिया का लाइट हाउस अब तक नहीं मिला पर उसकी खोज जारी है ,यूनानियो की महागाथा इलिअत में वर्णित ट्रॉय की खोज अब तक जारी है ,यु तो ट्रॉय मिल चूका है पर वह इलिअत में वर्णित ट्रॉय की तरह विशाल और मजबूत दीवारों वाला नहीं है ।
और भारत में अब तक कई प्राचीन नगर या महल अब तक नहीं मिले और जो है जैसे की राम सेतु उसे मानव निर्मित न कहकर हिंदू धर्म और वैदिक ग्रंथो को 100% झूठ करार दे दिया है ।
क्या केवल विदेशी ही सच लिखते है ?? भारतीय नहीं ??
आप येसु के पानी पर चलने की बात स्वीकार लेते हो यह कहकर की येसु जमे हुए पानी पर चले थे पर श्री राम का राम सेतु बनाना आपके लिए मिथक है बस ।
पर अब जैसे जैसे हिंदू जाग रहा है वैसे वैसे सबको सच पता चल जायेगा ।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने पुराना किला या इन्द्रप्रस्थ में दुबारा खुदाई शुरू कर दी है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का लक्ष्य है पांडवो के इन्द्रप्रस्थ के साक्ष्य खोजना और महाभारत को एक सच्चा इतिहास सिद्ध करना ।
भारत या भारतीय उपमहाद्वीप में यु तो अधिकतर पुरातात्विक स्थलों पर आम आदमी को जाने की मनाई है पर पहली बार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने आम जनता को पुराने किले में घुमने और खोजकरताओ को खोज करते देखने की अनुमति दे दी है ।
अभी तक पुराने किले में मुग़ल ,सल्तनत ,राजपूत,गुप्त,शुंग और मौर्य काल के अवशेष मिले है ,पुरातत्वविदो अब भूरे बर्तन वाली संस्कृति के अवशेष खोज रहे है क्युकी भूरे बर्तन वाली संस्कृति एक लोह युग संस्कृति है और 1600 ईसापूर्व पुरानी है जो यमुना गंगा घाटी में फैली थी ।
भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विदेशी कालगणना का उपयोग करता है बजाये हिंदू कालगणना के और विदेशी कालगणना अनुसार मगध का राजा जरासंध 1500 ईसापूर्व में हुआ था और वह महाभारत युगीन है इसीलिए पुरातत्वविद इन्द्रप्रस्थ और पांडवो को भूरे बर्तन की संस्कृति से जोड़ रहे है जो गलत है ।
मैं अब यह ही आशा करता हु की इन्द्रप्रस्थ मिल जाये और महाभारत एक सत्य घटना सिद्ध हो जाए ।

जय माँ भारती

Friday, April 4, 2014

महरौली के लोह स्तंभ में वर्णित राजा चंद्र की पहचान (Identity of King Chandra of Iron Pillor of Mehrauli )

इतिहासकारों ने महरौली के लोह स्तंभ को सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में रखा है और लोह स्तंभ में वर्णित राजा चंद्र को चंद्रगुप्त द्वितीय से जोड़ दिया है ।
कुछ इतिहासकार मानते है की उस लोह स्तंभ में जो लेख है वो गुप्त लेखो की शैली का है और कुछ कहते है की चंद्रगुप्त द्वितीय के धनुर्धारी सिक्को में एक स्तंभ नज़र आता है जिसपर गरुड़ है ,पर वह स्तंभ कम और राजदंड अधिक नज़र आता है ।
लोह स्तंभ के अनुसार राजा चंद्र ने वंग देश को हराया था और सप्त सिंधु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था ।
जेम्स फेर्गुससनजैसे पश्चिमी इतिहासकार मानते है की यह लोह स्तंभ गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय का है ।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह स्तंभ सम्राट अशोक का है जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था ।

जे.ऍफ़.फ्लीट के अनुसार वह गुप्त वंश का चंद्रगुप्त प्रथम है ,पर फ्लीट मानते है की यह लेख समुद्रगुप्त के अलाहबाद स्तंभ और कुमारगुप्त प्रथम के बिल्साद लेख से मिलता जुलता है ।
फ्लीट यह भी कहते है की शायद यह स्तंभ हुन नरेश मिहिरकुल के छोटे भाई चंद्र का होगा और इस बात का उल्लेख युआन च्वांग करते हुए कहते है की यह स्तंभ मिहिरपुर में है ।
समुद्रगुप्त के आर्यवर्त विजय से यह साफ़ होता है की उत्तर बंगाल या वंग पहले से ही समुद्रगुप्त के साम्राज्य में था जो उसे उसके पिता चंद्रगुप्त प्रथम से मिला ,इसीलिए वंग देश को हराने की बात चंद्रगुप्त प्रथम पर सही बैठती है ।पर सप्त सिंधु पर समुद्रगुप्त ने विजय पाई थी और वह भी कुषाणों से जिसका वर्णन उसके अलाहबाद स्तंभ पर है साथ ही सप्त सिंधु चंद्रगुप्त प्रथम के साम्राज्य में नहीं था ।
हरप्रसाद शास्त्री अनुसार राजा चंद्र असल में वर्मन वंश के राजा चंद्रवर्मन है ,सिंहवर्मन का पुत्र जो पुष्करण पर राज करता था सुसनिया लेख अनुसार ।
पर सुसनिया लेख चंद्रवर्मन को कोई सम्राट या विजेता के रूप में नहीं दर्शाता ।
ऐसे में लोह स्तंभ के राजा चंद्र की पहचान करना कठिन है ।
ए.वी. वेंकटराम एयर और हेमचंद्र राय चौधरी अनुसार राजा चंद्र और कोई नहीं बल्कि पुराणों का सदचंद्र है जो भारशिव वंश का था और विदिशा का राजा था ,पर सदचंद्र के राज में भारशिव वंश विदिशा तक ही सिमट गया था और ना ही किसी अन्य ग्रंथ में सदचंद्र के विजयो के साबुत है ।
अधिकतर इतिहासकार वी.ए स्मिथ से सहमत है की राजा चंद्र असल में चंद्रगुप्त द्वितीय है पर एलन मानते है की स्मिथ का यह तर्क केवल लेखो के अधार पर है ।
लोह स्तंभ लेख अनुसार राजा चंद्र का साम्राज्य दक्षिण सागर तक है और यह बात समुद्रगुप्त पर सही बैठती है क्युकी उसने दक्षिण भारत में भी युद्ध किये थे जो चंद्रगुप्त प्रथम और चंद्रगुप्त द्वितीय ने नहीं किया ।
लेख में वंग देशो को या उनके संघ को हराने की बात कही है ,अलाहबाद स्तंभ लेख में वंग देशो का उल्लेख नहीं है यानी की वंग पहले से ही समुद्रगुप्त के साम्राज्य का भाग होगा ।
लेख में सप्त सिंधु के मुहाने पर वह्लिको को हराने का जीकर है ।रामायण में इस बात का उल्लेख है की ऋषि वशिष्ठ ने अपना संदेश राजा भरत को पहोचने के लिए एक व्यक्ति को भेजा था ।
वह संदेशवाहक वह्लिक देश से होते हुए सुदामन पर्वत जाता है और विष्णुपद (लोह स्तंभ में इसी जगह स्तंभ गाड़ने का वर्णन है ) देखता है और दो नदिया विपासा और सल्माली नदी देखता है ।
लेख में आगे लिखा है की राजा चंद्र धरती के साथ साथ स्वर्ग को भी जीत लिया ।
दी.आर.भंडारकर के अनुसार किसी भी मनुष्य के लिए स्वर्ग जितना नामुमकिन काम है ,इसीलिए यहाँ आकाश या किसी उचे पर्वत की बात की गई है जहा राजा चंद्र ने अपने अंतिम दिन गुजारे।
जे.सी घोष अनुसार यह विष्णुपद वही पर्वत है जिसका जीकर रामायण में है ।
इसके अलावा कुछ इतिहासकार मानते है की हुन राजा मिहिरकुल का राज उत्तर भारत में था और विष्णुपद भी ,वही से मिहिरकुल इस लोह स्तंभ को महरौली ले आया ।

यह थी इतिहासकारों की राय जो इसी पर है की चंद्रगुप्त द्वितीय ही राजा चंद्र है पर एक भी ठोस साबुत नहीं दे पाए ।
अब मैं अपनी राय आगे रख रहा हु ।मेरे पास कुछ साबुत है जो इस ओर इशारा करते है की इस लोह स्तंभ का चंद्रगुप्त द्वितीय या गुप्त वंश से कोई रिश्ता नहीं है ।
1. गुप्त राजाओ ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी और गुप्त लेखो में गुप्त राजाओ के नाम के साथ महाराजाधिराज मिलेगा ही मिलेगा ,लेकिन इस स्तंभ में राजा चंद्र के नाम के साथ महाराजाधिराज है ही नहीं ।

2. अधिकतर गुप्त लेखो में हमें गुप्त वंशावली मिलेगी पर इस लोह स्तंभ पर गुप्त वंशावली है ही नहीं ,हा कुछ गुप्त लेखो में हमें गुप्त वंशावली नहीं मिलती पर उनमे उन लेखो को खुदवाने वाले राजा का पूरा नाम और महाराजाधिराज उपाधि जरुर मिलती है ।

3. लोह स्तंभ के अनुसार राजा चंद्र ने सप्त सिन्धु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था पर कालिदास जो चंद्रगुप्त द्वितीय की सभा में थे वे यह लिखते है की चंद्रगुप्त द्वितीय ने हूणों को हराया था सिंधु घाटी में ,साथ ही कालिदास कही भी वह्लिको से युद्ध का जीकर नहीं करते ।

यह तो सिद्ध हो गया की यह लोह स्तंभ गुप्तो का नहीं है तो सवाल उठता है की यह स्तंभ आखिर है किसका ??

इसके दो उत्तर हो सकते है :-
पहला यह की यह किसी स्थानीय राजा ने खुदके या खुदके पूर्वज की बड़ाई करने हेतु बनवाया था ,पर बड़ाई या तारीफ करने के लिए कोई लोह के बजाये पत्थर को चुनेगा ,अर्थात यह सच में किसी प्रतापी राजा ने बनवाया होगा ।
तो दूसरा उत्तर होगा की यह स्तंभ चंद्रगुप्त मौर्य का है ,इसके पीछे सिधांत यह है :-
1. वह्लिक ईरानी लोग थे जो अफगान में रहने लगे और उनका इतिहास 2000 ईसापूर्व पुराना है ।भारतीय कालगणना अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य 1400 ईसापूर्व या 1000 ईसापूर्व में जन्मा था और उस समय तक वह्लिको का फैलाव सिंधु घाटी तक था ,चंद्रगुप्त मौर्य का युद्ध वह्लिको से जरुर हुआ होगा ।

2. लोह स्थंभ अनुसार वंग देशो के संघ के साथ राजा चंद्र का युद्ध हुआ था और संघ या गण संघ महाजनपद काल के थे जो चंद्रगुप्त मौर्य का ही काल था ।

3. लोह स्तंभ अनुसार राजा चंद्र ने दक्षिण समुद्र तक के राज्य जीते थे और चंद्रगुप्त मौर्य भी ।

4. लोह स्तंभ विष्णु को समर्पित है और चाणक्य के अर्थशास्त्र में विष्णु की पूजा का उल्लेख है अर्थात यह उसी काल का है ।

जैसा मैंने अपने पिछले लेख "हिंदू सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य " में बताया की चंद्रगुप्त मौर्य जैन नहीं बल्कि हिंदू थे और वे अपने अंतिम समय में विष्णुपद पर जाकर बस गए ।

जय माँ भारती